हमारी शिक्षा पद्धति रचनात्मक बहुआयामी और समृद्ध - राज्यप

हमारी शिक्षा पद्धति रचनात्मक बहुआयामी और समृद्ध - राज्यप

छत्तीसगढ़
के राज्यपाल श्री बिस्वा भूषण
हरिचंदन ने कहा कि हमारी शिक्षा
पद्धति रचनात्मक, बहुआयामी और
समृद्ध रही है। भारतीय गुरु
परंपरा में प्रकृति के साथ
सीखने की भारतीय शिक्षा पद्धति,
अपने प्रारंभ काल से ही
उत्कर्षमय रही है। रवींद्रनाथ
टैगोर ने प्रकृति के बीच शिक्षा
देने के उद्देश्य से ही
शांतिनिकेतन और विश्वभारती की
स्थापना की थी। राज्यपाल श्री
हरिचंदन भोपाल के रविंद्र भवन
में उन्मेष उत्सव के दूसरे दिन
गौरांजनी सभागार में ‘रचनात्मकता
बढ़ाने वाली शिक्षा ’  सत्र को
संबोधित कर रहें थे। उन्होंने
कहा कि महात्मा गाँधी ने शिक्षा 
के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक,
सांस्कृतिक पहलुओं पर प्रकाश 
डालते हुए समाज के लिए
प्रासंगिक रचनात्मक  शिक्षा
की  पृष्ठभूमि तैयार की और 
दर्शन, नीति, नियम, सत्य-अहिंसा,
न्याय और मानवीय प्रतिष्ठा का
मार्ग प्रशस्त  किया।
राज्यपाल
श्री हरिचंदन ने कहा कि शिक्षा
अपने आप में रचनात्मकता बढ़ाने
वाली है और यह दोनों एक दूसरे के
पर्याय हैं। सत्र की अध्यक्षता
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के
अध्यक्ष गोविंद शर्मा ने की।
वक्ता के रूप में प्रख्यात
शिक्षाविद् चक्रधर त्रिपाठी,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
की कुलपति शांतिश्री धुलिपुड़ी
व आनलाइन माध्यम से आईआईटी
मद्रास के निदेशक वी.कामकोटि
जुड़े। साहित्य अकादेमी के
अध्यक्ष  श्री माधव कौशिक ने
राज्यपाल श्री श्री हरिचंदन का
सम्मान और अभिनंदन किया।

“भारतीय
भक्ति साहित्य” के विषय पर
आयोजित सत्र में केरल के
राज्यपाल श्री आरिफ़ मोहम्मद
खान ने कहा कि भारत में भक्त
कवियों ने हमारे प्राचीन ज्ञान
को आम लोगों तक  उनकी भाषा में
पहुंचाया। हमारी सनातन परंपरा
इतनी समावेशी है कि चाहकर भी
किसी को उससे अलग नहीं किया जा
सकता। यह भारत में ही संभव है कि
स्वर्ण मंदिर की नींव मुस्लिम
सूफी मियाँ मीर ने रखी। उनके
साथ वक्ता सर्वश्री  विनायक
वंद्योपाध्याय, एम.ए. आलवार,
माधव हाड़ा, प्रणव खुत्तर,
सूर्यप्रसाद दीक्षित और
वीरसागर जैन ने भी भारतीय
साहित्यकारों का भक्ति मार्ग
के माध्यम से साहित्य को जन जन
तक पहुंचाने के योगदान पर
प्रकाश डाला।

विचार
विमर्श

एशिया
के सबसे बड़े अन्तर्राष्ट्रीय
साहित्य उत्सव उन्मेष के दूसरे
दिन 20 से अधिक सत्रों में 130 से
अधिक लेखकों, कवियों और
प्रबुद्धजनों ने साहित्य के
संरक्षण, प्रचार प्रसार और
उत्थान के लिए अपने विचार रखे।
नाटक ,सिनेमा,अनुवाद,मेरे लिए
कविता का अर्थ,भारतीय काव्य
परंपरा, योग साहित्य , नई शिक्षा
नीति पर विचार विमर्श हुआ। इनमे
प्रमुख रूप से सर्वश्री महेश
दत्तानी, रंजीत कपूर , चित्रा
मुद्गल, ममता कालिया, के.
सच्चिदानंदन,चंद्रशेखर कंबार
और  उषा किरण खान आदि ने भाग
लिया।

13
राज्यों के कलाकारों ने दी
सांस्कृतिक प्रस्तुति
आजी
‘लामू नृत्य, अरुणाचल प्रदेश

अरुणाचल
प्रदेश का आजी ‘लामू नृत्य मोन
इंडिजीनियस कल्चर एंड वेलफेयर
सोसाइटी, पश्चिम कामेंग द्वारा
प्रस्तुत किया गया। एक समय जब
संसार में मनुष्यों के साथ ही
भूत-प्रेत, देवता और बुरी
आत्माओं का वास हुआ करता था।
उसी समय की बात है, एक गाँव बुरी
आत्माओं से त्रस्त था। आए दिन
बुरी आत्माओं की वजह से लोगों
को जान गँवानी पड़ती थी। ऐसे
में गाँव के लोगों ने कुछ करने
की ठानी। तब लोपोन रिनपोचे (सर्वोच्च
धर्मगुरु) ने बुरी आत्माओं से
मुक्ति के लिए प्रार्थना की। और
इस तरह आजी लामू नृत्य का जन्म
हुआ। आजीलामु अरुणाचल प्रदेश
का एक लोकप्रिय नृत्य है। मोनपा
जनजाति के लोग यह नृत्य करते
हैं। मोनपा जनजाति की
प्रसिद्धि उसके सांस्कृतिक
पक्ष के कारण अधिक है। आजीलामु
कलाकार मुखौटा पहनकर नृत्य
करते हैं और इसमें प्रयुक्त
गीतों का स्वर सामान्यतः काफी
तेज और लयबद्ध होता है, जिसके
कारण नृत्य भी ऊर्जा से भरपूर
होता है। आजी लामू नृत्य विशेष
रूप से चोयकोर उत्सव के दौरान
किया जाता है।
सिरमौरी
नाटी,
हिमाचल प्रदेश

हिमाचल
प्रदेश का सिरमौरी नाटी नृत्य
आसरा, सिरमौर द्वारा प्रस्तुत
किया गया। सिरमौरी नाटी कुल्लू
घाटी का प्रसिद्ध लोकनृत्य है।
यह नृत्य किसी भी मांगलिक अवसर
पर किया जाता है।
लोग रात-रात भर समूहों में
नृत्य करते हैं जिसे नाटी कहा
जाता है। कुल्लूवी नाटी में
कुल्लूवी लोकवाद्य ढोल, नगाड़े,
शहनाई, करनाल इत्यादि का प्रयोग
किया जाता है। नृत्य के दौरान
पुरुष व स्त्रियाँ विशेष
परिधान व आभूषण पहनते हैं।
स्त्रियाँ पट्टू, धाठू, कुर्ती,
पजामी के साथ-साथ गले में
चन्द्रहार, जौ माला, डोड माला,
बुमणी, हाथों में टोके, पाँव में
पाजेब, कानों में गोखडू, नाक में
फूली तथा बालों में चांदी का
जुट्टू आदि पहनती हैं। पुरुष
कुर्ता, पजामा, चोला, टोपा,
लाच्छू, पटका, पूले के साथ-साथ
कलगी, जौथी, तौड़ा, चौकी आदि
पहनते हैं|

पंथी
नृत्य, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़
का पंथी नृत्य उपकार पंथी लोक
नृत्य, कल्याण सेवा समिति,
रायपुर द्वारा प्रस्तुत किया
गया।  पंथी नृत्य छत्तीसगढ़
के सतनामी समुदाय की नृत्य विधा
है। पंथी नृत्य के गीतों में
मनुष्य जीवन की महत्ता के साथ-साथ
आध्यात्मिक संदेश भी शामिल
होता है। पंथी नृत्य के गीतों
का प्रमुख विषय गुरु घासीदास का
जीवन-चरित्र है। यह द्रुत गति
का नृत्य है, जिसमें नर्तक अपना
शारीरिक कौशल और चपलता
प्रदर्शित करते हैं। सफेद रंग
की धोती, कमरबन्द तथा घुंघरू
पहने नर्तक मृदंग एवं झांझ की
लय पर आंगिक चेष्टाएँ करते हुए
मंत्र-मुग्ध प्रतीत होते ही गीत
के बोल और मृदंग की थाप जिस गति
से तीव्र होती है, उसी गति से
पंथी नर्तकों की आंगिक
चेष्टाएँ भी तीव्रतर होती जाती
हैं।
कालबेलिया
नृत्य,
राजस्थान

राजस्थान
के कालबेलिया नृत्य की
प्रस्तुति अप्पानाथ कालबेलिया
एवं दल, जोधपुर द्वारा दी गई।
कालबेलिया नृत्य राजस्थान के
प्रसिद्ध लोक नृत्यों में से एक
है। यह नृत्य कालबेलिया, जो कि
एक सपेरा जाति है, द्वारा किया
जाता है। कालबेलिया नृत्य में
सिर्फ़ स्त्रियाँ ही भाग लेती
हैं। प्रमुख नर्तक आम तौर पर
महिलाएँ होती है जो काले घाघरे
पहन कर साँप के गतिविधियों की
नकल करते हुए नाचती और चक्कर
मारती हैं। शरीर के उपरी भाग पर
पहने जाने वाला वस्त्र अंगरखा
कहलाता है, सिर को ऊपर से ओढनी
द्वारा ढंका जाता है और निचले
भाग में एक लहंगा पहना जाता है।
यह सभी वस्त्र काले और लाल रंग
के संयोजन से बने होते हैं और इन
पर इस तरह की कशीदाकारी होती है
कि जब नर्तक नृत्य की प्रस्तुति
करते हैं तो यह दर्शकों के आँखो
के साथ-साथ पूरे परिवेश को एक
शांतिदायक अनुभव प्रदान करते
हैं। इस नृत्य के दौरान
नृत्यांगनाओं द्वारा आंखों की
पलक से अंगूठी उठाना, मुँह से
पैसे उठाना, उल्टी चकरी खाना
आदि कई प्रकार की कलाबाजियाँ
दिखाई जाती हैं। यूनेस्को ने
कालबेलिया नृत्य को अमूर्त
सांस्कृतिक विरासत की
प्रतिनिधि सूची में भी शामिल
किया है। इस नृत्य में पुँगी (फूँक
कर बजाया जाने वाला काठ से बना
वाद्य यंत्र जिसे परंपरागत रूप
से साँप को पकड़ने के लिए बजाया
जाता है), डफली, खंजरी, मोरचंग,
खुरालिओ और ढोलक आदि वाद्यों का
प्रयोग किया जाता है।
तिवा
नृत्य,
असम

मारकंगकूची
तिवा कंथी जूरी जमात, मोरीगाँव
द्वारा असम के तिवा नृत्य की
मनमोहक प्रस्तुति दी गई। तिवा
नृत्य को बरात पूजा मिशावा भी
कहा जाता है। यह लालुंग के
मैदानी इलाके का लोक उत्सव है।
यह तेतलिया में तेतलिया के राजा
द्वारा काति बिहू और माघ बिहू
के बीच मनाया जाता है।
फाग
नृत्य,
हरियाणा

हरियाणा
का फाग नृत्य हरियाणा लोक कला
संस्थान, रोहतक द्वारा
प्रस्तुत किया गया। फाग नृत्य
हरियाणा का सबसे लोकप्रिय एवं
पारंपरिक नृत्य है। मुख्यतः यह
फागुन माह में किया जाता है।
हरियाणा में अधिकतर विवाह
फागुन माह में ही होते हैं और इस
नृत्य में देवर-भाभी के पवित्र
प्रेम व मीठी नोक-झोंक को
दर्शाया जाता है। देवर-भाभी की
मीठी नोक झोंक पर आधारित यह
मनमोहक लोकनृत्य अब हरियाणा के
साथ ही देश-विदेश में भी
लोकप्रिय हो गया है। इस नृत्य
में हारमोनियम, नगाड़ा, ढोलक,
चिमटा, बांसुरी, बेन्ज़ो जैसे
लोक वाद्यों का उपयोग होता है।
मयूर
रास,
उत्तर प्रदेश

उत्तर
प्रदेश के मयूर रास नृत्य की
प्रस्तुति ब्रज लोक संस्कृति
एवं सेवा संस्थान, मथुरा द्वारा
दी गई। मयूर रास उत्तर प्रदेश
के ब्रज क्षेत्र के प्रमुख
नृत्यों में से एक है। मयूर रास
महा रास का अभिन्न अंग है। ऐसी
मान्यता है कि एक दिन राधा रानी
अपने महल बरसाने में बहुत उदास
बैठी थीं, क्योंकि बहुत दिनों
से अपने प्रिय कन्हैया का
उन्हें दर्शन नहीं हुआ था।
अचानक उनके मन में विचार आता है
कि महल के बगल में जो घेवर वन है,
वहाँ मोर कुटी में जाकर वह
मोरों को नाचते हुए देखें जिससे
कि उनका मन प्रसन्न हो सके।
राधा रानी मोर कुटी जाती हैं पर
वहाँ पर उन्हें कोई मयूर नज़र
नहीं आता है तो राधा रानी और
उदास हो जाती हैं। तब श्री
कृष्ण स्वयं मोर का रूप धारण कर
आते हैं और राधा और उनकी सखियों
के संग मयूर रास रचते हैं। इस
नृत्य में नगाड़ा, हारमोनियम,
ढोलक, बांसुरी, मंजीरा आदि
वाद्यों का उपयोग किया जाता है।
नागपुरी
झुमुर,
झारखंड

झारखंड
के नागपुरी झुमुर नृत्य की
प्रस्तुति कुडुक कला केंद्र,
रांची द्वारा दी गई। यह नृत्य
मूलरूप से सदान संस्कृति का
हिस्सा है और मूलतः फसल कटाई के
बाद पुरुषों द्वारा किया जाता
है। झुमुर को अर्द्ध युद्ध-कला
कहा जा सकता है क्योंकि नर्तक
तलवार लेकर नृत्य करते हैं।
नृत्य के लय और पद संचरण पद्धति
से भी इसकी पुष्टि होती है। इस
नृत्य में प्रयुक्त वाद्यों
में शहनाई, ढोल, कारा, नगाड़ा,
झाई तथा करताल आदि प्रमुख हैं।
झुमुर नृत्य का एक अन्य रूप भी
प्रचलित है जो बरसात के मौसम
में स्त्रियों द्वारा किया
जाता है।
ढोल
चोलम एवं थॉंग-ता,
मणिपुर

मणिपुर
के लोक नृत्य ढोल चोलम एवं थॉंग-ता
की प्रस्तुति हुएन लालोंग थॉंग-ता
एसोसिएशन, इम्फाल ने दी। थॉंग-ता
दो शब्दों से मिलकर बना है।
थॉंग का शाब्दिक अर्थ होता है—तलवार
और ता का अर्थ है-भाला। थॉंग-ता
दरअसल मणिपुर की युद्धकला है,
जिसमें नर्तक तलवार और भाला
लेकर काल्पनिक युद्ध करते हैं।
तलवार और भाले के साथ युद्ध-नृत्य
के अलावा थॉंग-ता में मल्लयुद्ध
शैली (मुकना) का भी समावेश होता
है। अपने प्रारम्भिक काल में यह
कोई प्रदर्शन कला नहीं थी बल्कि
एक गंभीर आत्मरक्षा परिपाटी थी
जो सैनिकों को सिखाई जाती थी।
राजाओं द्वारा अपने सैनिकों को
प्रशिक्षण देने के लिए थॉंग-ता
विशेषज्ञों को नियुक्त किया
जाता था। थांग-ता नृत्य स्त्री
और पुरुष दोनों करते हैं। यह
नृत्य ढोलक और करताल की लय पर
किया जाता है।
ढोल
चोलम: भारत में मनाया जाने वाला
होली का त्यौहार मणिपुर में
याओशांग के नाम से प्रसिद्ध है।
मणिपुर में यह उत्सव पांच दिनों
तक चलता है और उत्सव के दूसरे
दिन श्री श्री गोविंदजी के
मंदिर में पूजा के बाद ढोल चोलम
नृत्य को बड़े धूम धाम के साथ
किया जाता है। यह नृत्य भक्ति
और आनंद को दर्शाता है।
करगट्टम,
तमिलनाडु

तमिलनाडु
के प्राचीन लोक नृत्य करगट्टम
की प्रस्तुति तमिलनाडु रुरल
आर्ट्स डेव्लपमेंट सेंटर,
मदुरई के कलाकारों द्वारा दी
गई। करगट्टम तमिलनाडु का एक
प्राचीन लोक नृत्य है। नृत्य के
दौरान नर्तकियाँ रंगीन
साड़ियाँ पहनती हैं और अपने सिर
पर करगम (एक विशेष पात्र) रखती
हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह
नृत्य वर्षा देवी मरियम्मन का
आह्वान करने के लिए किया जाता
है। कलाकार अपने सिर में रखे
करगम को संतुलित रखते हुए नृत्य
करते हैं। पात्र में चावल के
दाने और अंकुर होते हैं। इस
नृत्य शैली की अनूठी विशेषता
करगम (पानी के बर्तन) को सिर पर
रखकर नृत्य करना है। करगट्टम
नृत्य के दो रूप हैं— शक्ति
करगम और अट्टा करगम। अट्टा करगम
केवल तमिलनाडु के पवित्र
मंदिरों में ही किया जाता है
जबकि शक्ति करगम नृत्य किसी भी
सार्वजनिक मंच पर किया जा सकता
है।
नटुवा
नृत्य,
पश्चिम बंगाल

पश्चिम
बंगाल के प्राचीन लोक नृत्य
नटुवा की प्रस्तुति बिरेन्द्र
कालन्दी एवं दल, पुरुलिया
द्वारा दी गई। नटुआ पश्चिम
बंगाल के पुरुलिया जिले का एक
प्राचीन लोक नृत्य है। इसका
उल्लेख शिव पुराण में भी मिलता
है। ऐसी मान्यता है कि भगवान
शिव के सहयोगी नंदी और भृंगी ने
सबसे पहले इस नृत्य को शिव एवं
पार्वती के विवाह के अवसर पर
किया था। सामान्यतः यह नृत्य जय
ढाक (ढोल) की थाप पर किया जाता
है। जय ढाक के बारे में कहा जाता
है कि इसे भगवान शिव ने स्वयं
बनाया था। यह नृत्य चरक पूजा के
दौरान और कभी-कभी विवाह के
दौरान भी किया जाता है। ऐसी
मान्यता है कि नटुआ की उत्पत्ति
नटराज से हुई होगी।
पूजा
कुनिथा,
कर्नाटक

कर्नाटक
के पूजा कुनिथा नृत्य की
प्रस्तुति शिवमधइया एवं दल,
रामनगर द्वारा दी गई। पूजा
कुनिथा कर्नाटक का एक लोकप्रिय
आनुष्ठानिक लोक नृत्य है जो
बेंगलुरु और मांड्या जिलों के
आसपास प्रचलित है। यह नृत्य
देवी ‘शक्ति’ की उपासना का नृत्य
माना जाता है। इस नृत्य में
नर्तक बांस से बना एक ढाँचा, जो
कि सुंदर साड़ियों और फूलों से
ढँका होता है, अपने हाथ और सिर पर
रख कर विशेष कौशल से नृत्य करता
है। ढाँचे के केंद्र में तांबे
और अन्य धातु से बने देवी के
चेहरे को देखा जा सकता है।
त्यौहारों के दिनों या विशेष
अवसरों पर कलाकार अपनी मन्नत
पूरी करने के लिए नृत्य करते
हैं। यह नृत्य आमतौर पर देवी ‘शक्ति’
के मंदिर के सामने किया जाता
है। इस नृत्य के साथ टमाटे,
नगारे और परसाई जैसे लोक
वाद्यों का प्रयोग किया जाता
है।
मणियारो
रास,
गुजरात

गुजरात
के मणियारो रास नृत्य की
प्रस्तुति प्रारम्भ कला वृंद,
गांधी नगर के कलाकारों द्वारा
दी गई। मणियारो रास गुजरात का
प्रमुख लोकनृत्य है। इसमें
छोटी-छोटी डंडियों का उपयोग
किया जाता है, जिसे डांडिया कहा
जाता है। यह सांगीतिक रास है
जिसमें जिसमें ढोल (ड्रम), सरनाई
(शहनाई), हारमोनियम जैसे
वाद्यों का इस्तेमाल होता है।
मणियारो रास के दौरान गायकों
द्वारा धार्मिक गीत गाए जाते
हैं। इस रास में कई तरह के मूव्स
होते हैं जिनमें घूमड़ और कूद
आदि प्रमुख हैं। इस सामूहिक
नृत्य में 12 कलाकार होते हैं और
प्रत्येक मूव संयुक्त रूप से
करते हैं। इस रास के लिए विशेष
रूप से सफेद कपड़े की पगड़ी
पहनी जाती है और लाल रंग की
पट्टी कमर और कंघे के बीच बांधी
जाती है। लाल और सोने की परत
चढ़ी मोतियों से बना छोटा हार
पहना जाता है। केवल माहेर
समुदाय के पुरुष ही यह पोशाक
पहनते है।